बुधवार, 18 अगस्त 2010

यज्ञोपवीत

 यज्ञोपवीत

यज्ञोपवीत अथवा उपनयन बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आधात्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है।मन्त्रों को शिव ने कलयुग के आरम्भ में कील दिया था .मन्त्र बिना महूर्त बिना आसन बिना मन्त्र के योग्य भोजन एकाग्रता और जन्म कुंडली के योग्य -योग के बगेर निष्फल हो जाते हेँ |इसे अंतिम संस्कार करवाते समय महा ब्राह्मण स्वयम करवाता हें ,जिसे करना कलयुग में मनुष्य के लिए सुगम होता हें |
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है। इस संस्कार के बारे में हमारे धर्मशास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था।अंतिम संस्कार में भी ग्रहस्थी जीव को सन्यासी जेसा बनाया जाता हें ,फिर दुबारा शुधि कर्ण के बाद ग्रहस्थ आश्रम में सम्लित कर लिया जाता हें जब की ऐसा सन्यास आश्रम में सम्भव ही नही हें | इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।

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