शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

पर्दा ओरत की इजत और ओरत परिवार की


रामायण  में तुलसी दास जी ने नारी को पर्दे का अधिकारी कहा  है जब की रामायण कालमे सीता माता को पर्दा करते नही दिखाया गया फिर भी सर को ढकने की प्रथा बहुत पुरानी है |पाठ पूजा या अनुष्ठानो में सर को ढका जाता हे |यह नियम स्त्री-पुरुष दोनों पर ही लागू होता था |सर का भाव इजत से भी कहा जाता हे |इजत जब तक घूंगट  यानि पर्दे में रहे थी तक इजत होती हे बेपर्दा होते ही बदनामी सर पर लगा करती है |इसी कारण से सनातनी हिन्दू भी घुंगट को अपनाने लगे परन्तु उन्हों ने इसे केवल महीलाओं पर ही घुंगट के रूप में लागू किया | घूंगट और बुर्का   दोनों सनातन धर्मों हिंदू और मुसल्मानो की पहिचान बन गये |
 मुस्लिम पर्दा 
 इसाई 
 सिख पंजाबी महिलाएं 
पर्दा ओरत की इजत और ओरत परिवार की

बुधवार, 22 सितंबर 2010

प्रथमे गणेश मनाऊ , फिर कोई दूजा काम

अथर्वशीर्ष की परम्परा में ‘गणपति अथर्वशीर्ष’ का विशेष महत्त्व है। प्रायः प्रत्येक मांगलिक कार्यों में गणपति-पूजन के अनन्तर प्रार्थना रुप में इसके पाठ की परम्परा है। यह भगवान् गणपति का वैदिक-स्तवन है। इसका पाठ करने वाला किसी प्रकार के विघ्न से बाधित न होता हुआ महापातकों से मुक्त हो जाता है। इसी क्रम में इस ‘गणपति-सूक्त’ इस ब्लॉग का शुभारम्भ किया जा रहा है। ईश्वर मंगल करे।
॥ श्री गणपत्यथर्वशीर्ष ॥
॥ शान्ति पाठ ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ तन्मामवतु तद् वक्तारमवतु अवतु माम् अवतु वक्तारम्
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥।
॥ उपनिषत् ॥
॥हरिः ॐ नमस्ते गणपतये ॥
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्ताऽसि। त्वमेव केवलं धर्ताऽसि। त्वमेव केवलं हर्ताऽसि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ॥ १॥
गणपति को नमस्कार है, तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्त्व हो, तुम्हीं केवल कर्त्ता, तुम्हीं केवल धारणकर्ता और तुम्हीं केवल संहारकर्ता हो, तुम्हीं केवल समस्त विश्वरुप ब्रह्म हो और तुम्हीं साक्षात् नित्य आत्मा हो।
॥ स्वरूप तत्त्व ॥
ऋतं वच्मि (वदिष्यामि)॥ सत्यं वच्मि (वदिष्यामि)॥ २॥
यथार्थ कहता हूँ। सत्य कहता हूँ।
अव त्वं माम् । अव वक्तारम् । अव श्रोतारम् । अव दातारम् । अव धातारम् । अवानूचानमव शिष्यम् । अव पश्चात्तात् । अव पुरस्तात् । अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणात्तात् । अव चोर्ध्वात्तात्। अवाधरात्तात्। सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ॥३॥
तुम मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। षडंग वेदविद् आचार्य की रक्षा करो। शिष्य रक्षा करो। पीछे से रक्षा करो। आगे से रक्षा करो। उत्तर (वाम भाग) की रक्षा करो। दक्षिण भाग की रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे की ओर से रक्षा करो। सर्वतोभाव से मेरी रक्षा करो। सब दिशाओं से मेरी रक्षा करो।
त्वं वाङ्ग्मयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः। त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥
तुम वाङ्मय हो, तुम चिन्मय हो। तुम आनन्दमय हो। तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानन्द अद्वितीय परमात्मा हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम ज्ञानमय हो, विज्ञानमय हो।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥ ५॥
यह सारा जगत् तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत् तुमसे सुरक्षित रहता है। यह सारा जगत् तुममें लीन होता है। यह अखिल विश्व तुममें ही प्रतीत होता है। तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि और आकाश हो। तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चतुर्विध वाक् हो।
त्वं गुणत्रयातीतः त्वमवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारः स्थिथोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यम्। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम् ॥ ६॥
तुम सत्त्व-रज-तम-इन तीनों गुणों से परे हो। तुम भूत-भविष्य-वर्तमान-इन तीनों कालों से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीनों देहों से परे हो। तुम नित्य मूलाधार चक्र में स्थित हो। तुम प्रभु-शक्ति, उत्साह-शक्ति और मन्त्र-शक्ति- इन तीनों शक्तियों से संयुक्त हो। योगिजन नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो। तुम विष्णु हो। तुम रुद्र हो। तुम इन्द्र हो। तुम अग्नि हो। तुम वायु हो। तुम सूर्य हो। तुम चन्द्रमा हो। तुम (सगूण) ब्रह्म हो, तुम (निर्गुण) त्रिपाद भूः भुवः स्वः एवं प्रणव हो।
॥ गणेश मंत्र ॥
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरम्।अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम्। संहितासंधिः। सैषा गणेशविद्या। गणकऋषिः। निचृद्गायत्रीच्छंदः। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ॥ ७॥
‘गण’ शब्द के आदि अक्षर गकार का पहले उच्चारण करके अनन्तर आदिवर्ण अकार का उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार रहे। इस प्रकार अर्धचन्द्र से पहले शोभित जो ‘गं’ है, वह ओंकार के द्वारा रुद्ध हो, अर्थात् उसके पहले और पीछे भी ओंकार हो। यही तुम्हारे मन्त्र का स्वरुप (ॐ गं ॐ) है। ‘गकार’ पूर्वरुप है, ‘अकार’ मध्यमरुप है, ‘अनुस्वार’ अन्त्य रुप है। ‘बिन्दु’ उत्तररुप है। ‘नाद’ संधान है। संहिता’ संधि है। ऐसी यह गणेशविद्या है। इस विद्या के गणक ऋषि हैं। निचृद् गायत्री छन्द है और गणपति देवता है। मन्त्र है- ‘ॐ गं गणपतये नमः”
॥ गणेश गायत्री ॥
एकदंताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दंतिः प्रचोदयात् ॥ ८॥
एकदन्त को हम जानते हैं, वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। दन्ती हमको उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करें।
॥ गणेश रूप (ध्यानम्)॥
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम् ॥
रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ॥
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ॥
रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ॥
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् ॥
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥ ९॥
गणपतिदेव एकदन्त और चर्तुबाहु हैं। वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, दन्त और वरमुद्रा धारण करते हैं। उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा रक्तवस्त्रधारी हैं। रक्तचन्दन के द्वारा उनके अंग अनुलिप्त हैं। वे रक्तवर्ण के पुष्पों द्वारा सुपूजित हैं। भक्तों की कामना पूर्ण करने वाले, ज्योतिर्मय, जगत् के कारण, अच्युत तथा प्रकृति और पुरुष से परे विद्यमान वे पुरुषोत्तम सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए। इनका जो इस प्रकार नित्य ध्यान करता है, वह योगी योगियों में श्रेष्ठ है।
॥ अष्ट नाम गणपति ॥
नमो व्रातपतये । नमो गणपतये । नमः प्रमथपतये । नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय । विघ्ननाशिने शिवसुताय । श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ॥ १०॥
व्रातपति, गणपति, प्रमथपति, लम्बोदर, एकदन्त, विघ्ननाशक, शिवतनय तथा वरदमूर्ति को नमस्कार है।
॥ फलश्रुति ॥
एतदथर्वशीर्षं योऽधीते ॥ स ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ स सर्वतः सुखमेधते ॥ स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते ॥ स पंचमहापापात्प्रमुच्यते ॥ सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ॥ प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ॥ सायंप्रातः प्रयुंजानो अपापो भवति ॥ सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति ॥ धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ॥ इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम् ॥ यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् ॥ ११॥
इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है। (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाले सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी १००० आवृत्ति करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा।
(विविध प्रयोग)
अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति ॥ चतुर्थ्यामनश्नन् जपति स विद्यावान् भवति ।
स यशोवान् भवति ॥ इत्यथर्वणवाक्यम् ॥ ब्रह्माद्याचरणं विद्यात् न बिभेति कदाचनेति ॥ १२॥
जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् हो जाता है। यह अथर्वण-वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता।
(यज्ञ प्रयोग)
यो दूर्वांकुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ॥ यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति ॥ स मेधावान् भवति ॥ यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति ॥ यः साज्यसमिद्भिर्यजति
स सर्वं लभते स सर्वं लभते ॥ १३॥
जो दुर्वांकुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान होता है। जो सहस्त्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है।
(अन्य प्रयोग)
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति ॥ सूर्यगृहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति ॥ महाविघ्नात्प्रमुच्यते ॥ महादोषात्प्रमुच्यते ॥ महापापात् प्रमुच्यते ॥ स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति ॥ य एवं वेद इत्युपनिषत् ॥ १४॥
जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज-सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है-वह सर्वविद् हो जाता है।
॥ शान्ति मंत्र ॥
ॐ सहनाववतु ॥ सहनौभुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥ तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥ स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥ स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः ॥।
॥ इति श्रीगणपत्यथर्वशीर्षं समाप्तम् ॥

सनातन धर्म मेरी नजर

सनातन धर्म --की स्थापना भगवान विष्णु जी ,अवतार रूप धारण कर करते हैं |अध्याय २ के अनुसार
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥
भावार्थ :  असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों को  ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥16॥ 
जो देखने में आया , आप भी देखें और विचारें 
                                  ईख 
                         ई से ईख   से ईश्वर 
ईख [गन्ना ]से उत्पति      क्यों की जिस तरहा ब्रह्मांडमांड की उत्पति ईश्वर से होती है    उसी प्रकार ईख की उत्पति देखें 
 ईख से गुड --; हिन्दू सनातन धर्म       एक ईश्वर के अतिरक्त और कुछ भी नही

 ईख से शकर --; मुस्लिम सनातन धर्म     ईश्वर रूपी खुदा के अतिरिक्त और कुछ भी नही

ईख से चीनी --; सिख सनातन धर्म   ईश्वर रूपी हरी अकाल पुरख

 ईख से बताशा --; इसाई सनातन धर्म   ईश्वर रूपी परमेश्वर 


जिस तरहा ईख से गुड शकर चीनी और बताशा उत्पन होते हैं उसी प्रकार ईश्वर से चार वेद ,चार दिशाएं , चार वर्ण , और चार सनातन धर्म , हिन्दू ; मुस्लिम ;सिख ; इसाई उत्पन होते जाने |गुड .चीनी .शकर. बताशा .; की उम्र लम्बी होती है ;इन को काफी समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है ;परन्तु इन से उत्पन अन्य उत्पादों [ मिठाई और देह धारी गुरुओं; ]को लम्बे समय तक सुरक्षित नही रखा जा सकता |
गन्ना  अपने आप में ही ईश्वर की भाँती अविनाशी है इस का कोई बीज नही |यह खुद ही अपना बीज होता है |
ईश्वर की भाँती उपर से कठोर     भीतर से मुलायम     और मीठा होता है  |
मेरी नजर में सनातन धर्म ऐसा होता है  जो  एक  ईश्वर के अतिरिक्त और किसी भी साधन को स्वीकार ना करता हो , गने के पते [ धागे ,ताबीज ,यंत्र -मन्त्र ,; तन्त्र और भी ढेरों ] जड़ वगेरा वगेरा |

सोमवार, 20 सितंबर 2010

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

श्रेणी: पुस्तक

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शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

हिन्दू गुरु








 







श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌ ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥
भावार्थ :  श्री भगवान बोले- ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं॥1॥ 
 
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥
भावार्थ :  इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते॥2॥अद्याये ४ के २ श्लोक 
इन दोनों श्लोकों को यदि नजर अंदाज कर दिया जाए तो हमें तलाश होती हें किसी आध्यात्मिक गुरु की जो हमे ज्ञान की प्राप्ति करवा कर हमारा इस भवसागर से उधार करे   और हम जा फंसते हेँ किसी ढोंगी पाखंडी अज्ञानी मुर्ख देह धारी गुरु के चंगुल में और तमो गुण की ओर बड़ते ही जाते हैं |
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्‌ ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥
भावार्थ :  हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद (इंद्रियों और अंतःकरण की व्यर्थ चेष्टाओं का नाम 'प्रमाद' है), आलस्य (कर्तव्य कर्म में अप्रवृत्तिरूप निरुद्यमता का नाम 'आलस्य' है) और निद्रा द्वारा बाँधता है॥8॥ 
यदि हम इसी पर ध्यान दें तो श्री कृष्ण भी किसी आध्यात्मिक गुरु से कम नजर नही आते 
जिन का किसी भी काल में अंत नही होता | इस  लोक से परलोक तक सर्व व्यापक गुरु प्राप्त हो जाता हें | क्यों की भगवान खुद ही कह रहे हैं की
  ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं  |
यह तभी समझ में आता हें जब हमें भगवान के वचनों पर विश्वाश हो ओर तब  हमे  भगवान से बड़ा ज्ञानी इस धरती पर कोई ओर या उनके बराबर नजर ही नही  आये गा जो गारंटी ओर विश्वाश से कहता हो की मेरे इस ज्ञान का सहारा पाकर वह सभी मुनि जन इस संसार से मुक्त हो कर परम सीधी को प्राप्त हो चुके हेँ |
अतः इस के लिए अद्याये १८ 
 
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥
भावार्थ :  सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में जिसकी विधि कही है) तथा समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो॥57॥   देखो
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्‍कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥
भावार्थ :  उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा॥58॥ 
 

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‍गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥
भावार्थ :  इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर॥63॥

बुधवार, 1 सितंबर 2010

सिख धर्म

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

कृष्ण जन्माष्टमी

कृष्ण जन्माष्टमी
कृष्ण जन्माष्टमी का महात्मय: भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में भगवान कृष्ण ने अवतार लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अतः इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी अथवा जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। रात के बारह बजे मथुरा के राजा कंस की जेल में वासुदेव जी की पत्नी देवी देवकी के गर्भ से सोलह कलाओं से युक्त भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था| इस तिथि को रोहिणी नक्षत्र का विशेष माहात्म्य है| इस दिन देश के समस्त मंदिरों का श्रुंगार किया जाता है| कृष्णावतार के उपलक्ष्य में झाँकियाँ सजायी जाती है|  भगवान कृष्ण का श्रुंगार करके झूला सजाया जाता है| स्त्री-पुरुष रात के बारह बजे तक व्रत रखते है| रात को बारह बजे शंख तथा घंटों की आवाज से श्री कृष्ण की आरती उतारी जाती है और प्रसाद वितरण किया जाता है| प्रसाद ग्रहण कर व्रत को खोला जाता है|
कृष्ण जन्माष्टमी की विधिः इस दिन उपवास रखें तथा अन्न का सेवन न करें। अमीर-गरीब सभी लोग यथाशक्ति-यथासंभव उपचारों से योगेश्वर कृष्ण का जन्मोत्सव मनाएं। जब तक उत्सव सम्पन्न न हो जाए तब तक भोजन कदापि न करें। जो वैष्णव कृष्णाष्टमी के दिन भोजन करता है, वह निश्चय ही नराधम है। उसे प्रलय होने तक घोर नरक में रहना पडता है। धार्मिक गृहस्थों के घर के पूजागृह तथा मंदिरों में श्रीकृष्ण-लीला की झांकियां सजाई जाती हैं। भगवान के श्रीविग्रहका श्रृंगार करके उसे झूला झुलाया जाता है। श्रद्धालु स्त्री-पुरुष मध्यरात्रि तक पूर्ण उपवास रखते हैं। अर्धरात्रि के समय शंख तथा घंटों के निनाद से श्रीकृष्ण-जन्मोत्सव मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति अथवा शालिग्राम को दूध, दही, शहद, यमुनाजल आदि से अभिषेक होता है।

कृष्ण जन्माष्टमी की कथाः द्वापर युग में पृथ्वी पर राक्षसों के अत्याचार बढने लगे। पृथ्वी गाय का रूप धारण कर अपनी व्यथा सुनाने के लिए तथा अपने उद्वार के लिए ब्रह्याजी के पास गई। ब्रह्याजी सब देवताओं को साथ लेकर पृथ्वी को विष्णु के पास क्षीर सागर ले गये। उस समय भगवान विष्णु अनन्त शैया पर शयन कर रहे थे। स्तुति करने पर भगवान की निद्रा भंग हो गई। भगवान ने ब्रह्या एवं सब देवताओ को देखकर उनके आने का करण पूछा तो पृथ्वी बोली-''भगवान! मैं पाप के बोझ से दबी जा रही हूँ मेरा उद्वार कीजिए। '' यह सुनकर विष्णु बोले-''मैं ब्रज मण्डल में वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से जन्म लूगाँ। तुम सब देवतागण ब्रज भूमि में जाकर यादव वंश में अपना शरीर धारण् करो।'' इतना कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए।
इसके पश्चात देवता ब्रज मण्डल में आकर यदुकुल में नन्द-यशोदा तथा गोप गोपियों के रूप में पैदा हुए।
द्वापर युग के अन्त में मथुरा में उग्रसेन राजा राज्य करते थें। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। कंस ने उग्रसेन को बलपूर्वक सिंहासन से उतारकर जेल में डाल दिया और स्वयं राजा बन गया। कंस की बहन देवकी का विवाह यादव कुल में वसुदेव के साथ निश्चित हो गया। जब कंस देवकी को विदा करने के लिए रथ के साथ जा रहा था तो आकाशवाणी हुई कि ''हे कंस! जिस देवकी को तू बडे प्रेम से विदा कर रहा है उसका आठवां पुत्र तेरा संहार करेगा। आकाशवाणी की बात सुनकर कंस क्रोध से भरकर देवकी को मारने को तैयार हो गया। उसने सोचा-न देवकी होगी न उसका कोई पुत्र होगा। वसुदेव जी ने कंस को समझाया कि तुम्हे देवकी से तो कोई भय नही है। देवकी की आठवीं सन्तान से तुम्हें भय है। इसलिए मैं इसकी आठवीं सन्तान को तुम्हें सौप दूँगा। तुम्हारी समझ में जो आये उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना। कंस ने वसुदेवजी की बात स्वीकार कर ली और वसुदेव और देवकी को कारागार में बन्द कर दिया।
तत्काल नारद जी वहाँ आ पहुँचे और कंस से बोले कि यह कैसे पता चलेगा कि आठवाँ गर्भ कौन-सा होगा। गिनती प्रथम से या अन्तिम गर्भ से शुरू होगी। कंस ने नारद जी के परामर्श पर देवकी के गर्भ से उत्पन्न होने वाले समस्त बालकों को मारने का निश्चय कर लिया। इस प्रकार एक-एक करके कंस ने देवकी के सात बालकों को निर्दयातपूर्वक मार डाला।
भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में श्री कृष्ण का जन्म हुआ। उनके जन्म लेते ही जेल की कोठरी में प्रकाश फैल गया। वसुदेव-देवकी के सामने शंख, चक्र, गदा एवं पह्यधारी चतुर्भुज भगवान ने अपना रूप प्रकट कर कहाँ- ''अब मैं बालक का रूप धारण करता हूँ। तुम मुझे तत्काल गोकुल में नन्द के यहाँ पहुँचा दो और उनकी अभी-अभी जन्मी कन्या को लाकर कंस को सौंप दो।''
तत्काल वासुदेव जी की हथकडियाँ खुल गई। दरवाजे अपने आप खुल गये। पहरेदार सो गये। वसुदेव कृष्ण को सूप में रखकर गोकुल को चल दिए। रास्ते में यमुना श्री कृष्ण के चरणों को स्पर्श करने के लिए बढने लगीं। भगवान ने अपने पैर लटका दिए। चरण छूने के बाद यमुना घट गई।
वसुदेव यमुना पार कर गोकुल में नन्द के यहाँ गये। बालक कृष्ण को यशोदा जी की बगल में सुलाकर कन्या को लेकर वापस कंस के कारागार में आ गये। जेल के दरवाजे पूर्ववत बन्द हो गये। वासुदेव जी के हाथों में हथकडियाँ पड़ गई, पहरेदार जाग गये। कन्या के रोने पर कंस को खबर दी गई। कंस ने कारागार में आकर कन्या को लेकर पत्थर पर पटककर मारना चाहा परन्तु वह कंस के हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गई और देवी का रूप धारण कर बोली-''हे कंस! मुझे मारने से क्या लाभ है? तेरा शत्रु तो गोकुल में पहुँच चुका है।'' यह द्रश्य देखकर कंस हतप्रभ और व्याकुल हो गया।
कंस ने श्री कृष्ण को मारने के लिए अनेक दैत्य भेजे। श्री कृष्ण ने अपनी अलौकिक माया से सारे दैत्यों को मार डाला। बडे होने पर कंस को मारकर उग्रसेन को राजगद्दी पर बैठाया।
श्री कृष्ण की पुण्य जन्म तिथि को तभी से सारे देश में बडे हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
 

सोमवार, 30 अगस्त 2010

कुरान

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पवित्र बाइबिल

 बाइबिल ईसाइयों का पवित्रतम धर्म ग्रंथ है।
ऐसा धर्म ग्रंथ जो ईसाई धर्म की आधार शिला है।
पे्रम और परमेश्वर से सराबोर एक अमूल्य पुस्तक।
इसकी रचना 1400 ई.पू. से 900ई. तक हुई ऐसी मान्यता है।
बाइबिल में कुल मिलाकर 72 ग्रंथों का संकलन है। पूर्व विधान में 45 तथा नव विधान में 27 ग्रंथ हैं।
बाइबिल दो भागों में विभक्त है। पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टामेंट) और नव विधान (न्यू टेस्टामेंट)
बाइबिल का पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टामेंट) ही यहूदियों का भी धर्म ग्रंथ है।
माना जाता है कि बाइबिल ईश्वरीय प्रेरणा (इंस्पायर्ड) से रचित गं्रथ है। किंतु उसे अपोरुषेय नहीं कहा जाता है।
बाइबिल ईश्वरीय प्रेरणा तथा मानवीय परिश्रम दोनों का सम्मिलित परिणाम है।
बाइबिल बड़ी ही सहज है इससे गूढ़ दार्शनिक सत्यों का संकलन नहीं है।
बाइबिल यह बताती है कि ईश्वर ने मानव जाति की मुक्ति का क्या प्रबंध किया है।
इंसान को प्रेम, उदारता और आत्म व्यवहार का पाठ पढ़ाती है बाइबिल।
बाइबिल में लौकिक ज्ञान एवं विज्ञान संबंधी जानकारी भी मिलती है।
बाइबिल के पूर्व विधान में यहूदी धर्म और यहूदी लोगों की गाथाएं, पौराणिक कहानियां आदि का वर्णन है।
बाइबिल के पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टोमेंट) की भाषा इब्रानी है।
बाइबिल के नव विधान को ईसा ने लिखा। इनमें ईसा की जीवन, उपदेश और शिष्यों के कार्य लिखे हैं।
नव विधान की मूल भाषा अरामी और प्राचीन ग्रीक है।
नव विधान में चार शुभ संदेश हैं जो ईसा की जीवनी का उनके चार शिष्यों द्वारा वर्णन है।
ईसा के चार प्रमुख शिष्य: मत्ती, लूका, युहन्ना और आकुसथे।
हजरत मूसा बाइबिल के सर्वाधिक प्राचीन लेखक हैं जिन्होंने 1100 ई.पू. में पूर्व विधान का कुछ अंश लिखा था।
नव विधान की रचना 50 वर्ष की अवधि में हुई यानि सन 50 ई से. 100 ई. के बीच।
बाइबिल में लोक कथाएं, काव्य और भजन, उपदेश, नीति कथाएं आदि अनेक प्रकार के साहित्यिक रूप पाए जाते हैं।

पवित्र बाइबिल

ओल्ड टैस्टमैंट - Old Testament

Books of the Law
Books of History
Writings
Prophets

नई टैस्टमैंट - New Testament

Gospels & Acts
Pauline Epistles
Other Epistles
End Times

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ਕੇਤੀਆ ਤੇਰੀਆ ਕੁਦਰਤੀ ਕੇਵਡ ਤੇਰੀ ਦਾਤਿ
केतीआ तेरीआ कुदरती केवड तेरी दाति ॥
Keṯī▫ā ṯerī▫ā kuḏraṯī kevad ṯerī ḏāṯ.
You have so many Creative Powers, Lord; Your Bountiful Blessings are so Great.
ਕੇਤੇ ਤੇਰੇ ਜੀਅ ਜੰਤ ਸਿਫਤਿ ਕਰਹਿ ਦਿਨੁ ਰਾਤਿ
केते तेरे जीअ जंत सिफति करहि दिनु राति ॥
Keṯe ṯere jī▫a janṯ sifaṯ karahi ḏin rāṯ.
So many of Your beings and creatures praise You day and night.
ਕੇਤੇ ਤੇਰੇ ਰੂਪ ਰੰਗ ਕੇਤੇ ਜਾਤਿ ਅਜਾਤਿ ॥੩॥
केते तेरे रूप रंग केते जाति अजाति ॥३॥
Keṯe ṯere rūp rang keṯe jāṯ ajāṯ. ||3||
You have so many forms and colors, so many classes, high and low. ||3||
ਸਚੁ ਮਿਲੈ ਸਚੁ ਊਪਜੈ ਸਚ ਮਹਿ ਸਾਚਿ ਸਮਾਇ
सचु मिलै सचु ऊपजै सच महि साचि समाइ ॥
Sacẖ milai sacẖ ūpjai sacẖ mėh sācẖ samā▫e.
Meeting the True One, Truth wells up. The truthful are absorbed into the True Lord.
ਸੁਰਤਿ ਹੋਵੈ ਪਤਿ ਊਗਵੈ ਗੁਰਬਚਨੀ ਭਉ ਖਾਇ
सुरति होवै पति ऊगवै गुरबचनी भउ खाइ ॥
Suraṯ hovai paṯ ūgvai gurbacẖnī bẖa▫o kẖā▫e.
Intuitive understanding is obtained and one is welcomed with honor, through the Guru's Word, filled with the Fear of God.
ਨਾਨਕ ਸਚਾ ਪਾਤਿਸਾਹੁ ਆਪੇ ਲਏ ਮਿਲਾਇ ॥੪॥੧੦॥
नानक सचा पातिसाहु आपे लए मिलाइ ॥४॥१०॥
Nānak sacẖā pāṯisāhu āpe la▫e milā▫e. ||4||10||
O Nanak, the True King absorbs us into Himself. ||4||10||
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ
सिरीरागु महला १ ॥
Sirīrāg mėhlā 1.
Siree Raag, First Mehl:
ਭਲੀ ਸਰੀ ਜਿ ਉਬਰੀ ਹਉਮੈ ਮੁਈ ਘਰਾਹੁ
भली सरी जि उबरी हउमै मुई घराहु ॥
Bẖalī sarī jė ubrī ha▫umai mu▫ī gẖarāhu.
It all worked out-I was saved, and the egotism within my heart was subdued.
ਦੂਤ ਲਗੇ ਫਿਰਿ ਚਾਕਰੀ ਸਤਿਗੁਰ ਕਾ ਵੇਸਾਹੁ
दूत लगे फिरि चाकरी सतिगुर का वेसाहु ॥
Ḏūṯ lage fir cẖākrī saṯgur kā vesāhu.
The evil energies have been made to serve me, since I placed my faith in the True Guru.
ਕਲਪ ਤਿਆਗੀ ਬਾਦਿ ਹੈ ਸਚਾ ਵੇਪਰਵਾਹੁ ॥੧॥
कलप तिआगी बादि है सचा वेपरवाहु ॥१॥
Kalap ṯi▫āgī bāḏ hai sacẖā veparvāhu. ||1||
I have renounced my useless schemes, by the Grace of the True, Carefree Lord. ||1||
ਮਨ ਰੇ ਸਚੁ ਮਿਲੈ ਭਉ ਜਾਇ
मन रे सचु मिलै भउ जाइ ॥
Man re sacẖ milai bẖa▫o jā▫e.
O mind, meeting with the True One, fear departs.
ਭੈ ਬਿਨੁ ਨਿਰਭਉ ਕਿਉ ਥੀਐ ਗੁਰਮੁਖਿ ਸਬਦਿ ਸਮਾਇ ॥੧॥ ਰਹਾਉ
भै बिनु निरभउ किउ थीऐ गुरमुखि सबदि समाइ ॥१॥ रहाउ ॥
Bẖai bin nirbẖa▫o ki▫o thī▫ai gurmukẖ sabaḏ samā▫e. ||1|| rahā▫o.
Without the Fear of God, how can anyone become fearless? Become Gurmukh, and immerse yourself in the Shabad. ||1||Pause||
ਕੇਤਾ ਆਖਣੁ ਆਖੀਐ ਆਖਣਿ ਤੋਟਿ ਹੋਇ
केता आखणु आखीऐ आखणि तोटि न होइ ॥
Keṯā ākẖaṇ ākẖī▫ai ākẖaṇ ṯot na ho▫e.
How can we describe Him with words? There is no end to the descriptions of Him.
ਮੰਗਣ ਵਾਲੇ ਕੇਤੜੇ ਦਾਤਾ ਏਕੋ ਸੋਇ
मंगण वाले केतड़े दाता एको सोइ ॥
Mangaṇ vāle keṯ▫ṛe ḏāṯā eko so▫e.
There are so many beggars, but He is the only Giver.
ਜਿਸ ਕੇ ਜੀਅ ਪਰਾਣ ਹੈ ਮਨਿ ਵਸਿਐ ਸੁਖੁ ਹੋਇ ॥੨॥
जिस के जीअ पराण है मनि वसिऐ सुखु होइ ॥२॥
Jis ke jī▫a parāṇ hai man vasi▫ai sukẖ ho▫e. ||2||
He is the Giver of the soul, and the praanaa, the breath of life; when He dwells within the mind, there is peace. ||2||
ਜਗੁ ਸੁਪਨਾ ਬਾਜੀ ਬਨੀ ਖਿਨ ਮਹਿ ਖੇਲੁ ਖੇਲਾਇ
जगु सुपना बाजी बनी खिन महि खेलु खेलाइ ॥
Jag supnā bājī banī kẖin mėh kẖel kẖelā▫e.
The world is a drama, staged in a dream. In a moment, the play is played out.
ਸੰਜੋਗੀ ਮਿਲਿ ਏਕਸੇ ਵਿਜੋਗੀ ਉਠਿ ਜਾਇ
संजोगी मिलि एकसे विजोगी उठि जाइ ॥
Sanjogī mil ekse vijogī uṯẖ jā▫e.
Some attain union with the Lord, while others depart in separation.
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਣਾ ਸੋ ਥੀਐ ਅਵਰੁ ਕਰਣਾ ਜਾਇ ॥੩॥
जो तिसु भाणा सो थीऐ अवरु न करणा जाइ ॥३॥
Jo ṯis bẖāṇā so thī▫ai avar na karṇā jā▫e. ||3||
Whatever pleases Him comes to pass; nothing else can be done. ||3||
ਗੁਰਮੁਖਿ ਵਸਤੁ ਵੇਸਾਹੀਐ ਸਚੁ ਵਖਰੁ ਸਚੁ ਰਾਸਿ
गुरमुखि वसतु वेसाहीऐ सचु वखरु सचु रासि ॥
Gurmukẖ vasaṯ vesāhī▫ai sacẖ vakẖar sacẖ rās.
The Gurmukhs purchase the Genuine Article. The True Merchandise is purchased with the True Capital.
ਜਿਨੀ ਸਚੁ ਵਣੰਜਿਆ ਗੁਰ ਪੂਰੇ ਸਾਬਾਸਿ
जिनी सचु वणंजिआ गुर पूरे साबासि ॥
Jinī sacẖ vaṇaṇji▫ā gur pūre sābās.
Those who purchase this True Merchandise through the Perfect Guru are blessed.
ਨਾਨਕ ਵਸਤੁ ਪਛਾਣਸੀ ਸਚੁ ਸਉਦਾ ਜਿਸੁ ਪਾਸਿ ॥੪॥੧੧॥
नानक वसतु पछाणसी सचु सउदा जिसु पासि ॥४॥११॥
Nānak vasaṯ pacẖẖāṇsī sacẖ sa▫uḏā jis pās. ||4||11||
O Nanak, one who stocks this True Merchandise shall recognize and realize the Genuine Article. ||4||11||
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲੁ
सिरीरागु महलु १ ॥
Sirīrāg mahal 1.
Siree Raag, First Mehl:
ਧਾਤੁ ਮਿਲੈ ਫੁਨਿ ਧਾਤੁ ਕਉ ਸਿਫਤੀ ਸਿਫਤਿ ਸਮਾਇ
धातु मिलै फुनि धातु कउ सिफती सिफति समाइ ॥
Ḏẖāṯ milai fun ḏẖāṯ ka▫o sifṯī sifaṯ samā▫e.
As metal merges with metal, those who chant the Praises of the Lord are absorbed into the Praiseworthy Lord.
ਲਾਲੁ ਗੁਲਾਲੁ ਗਹਬਰਾ ਸਚਾ ਰੰਗੁ ਚੜਾਉ
लालु गुलालु गहबरा सचा रंगु चड़ाउ ॥
Lāl gulāl gahbarā sacẖā rang cẖaṛā▫o.
Like the poppies, they are dyed in the deep crimson color of Truthfulness.
ਸਚੁ ਮਿਲੈ ਸੰਤੋਖੀਆ ਹਰਿ ਜਪਿ ਏਕੈ ਭਾਇ ॥੧॥
सचु मिलै संतोखीआ हरि जपि एकै भाइ ॥१॥
Sacẖ milai sanṯokẖī▫ā har jap ekai bẖā▫e. ||1||
Those contented souls who meditate on the Lord with single-minded love, meet the True Lord. ||1||
ਭਾਈ ਰੇ ਸੰਤ ਜਨਾ ਕੀ ਰੇਣੁ
भाई रे संत जना की रेणु ॥
Bẖā▫ī re sanṯ janā kī reṇ.
O Siblings of Destiny, become the dust of the feet of the humble Saints.
ਸੰਤ ਸਭਾ ਗੁਰੁ ਪਾਈਐ ਮੁਕਤਿ ਪਦਾਰਥੁ ਧੇਣੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ
संत सभा गुरु पाईऐ मुकति पदारथु धेणु ॥१॥ रहाउ ॥
Sanṯ sabẖā gur pā▫ī▫ai mukaṯ paḏārath ḏẖeṇ. ||1|| rahā▫o.
In the Society of the Saints, the Guru is found. He is the Treasure of Liberation, the Source of all good fortune. ||1||Pause||
ਊਚਉ ਥਾਨੁ ਸੁਹਾਵਣਾ ਊਪਰਿ ਮਹਲੁ ਮੁਰਾਰਿ
ऊचउ थानु सुहावणा ऊपरि महलु मुरारि ॥
Ūcẖa▫o thān suhāvaṇā ūpar mahal murār.
Upon that Highest Plane of Sublime Beauty, stands the Mansion of the Lord.
ਸਚੁ ਕਰਣੀ ਦੇ ਪਾਈਐ ਦਰੁ ਘਰੁ ਮਹਲੁ ਪਿਆਰਿ
सचु करणी दे पाईऐ दरु घरु महलु पिआरि ॥
Sacẖ karṇī ḏe pā▫ī▫ai ḏar gẖar mahal pi▫ār.
By true actions, this human body is obtained, and the door within ourselves which leads to the Mansion of the Beloved, is found.
ਗੁਰਮੁਖਿ ਮਨੁ ਸਮਝਾਈਐ ਆਤਮ ਰਾਮੁ ਬੀਚਾਰਿ ॥੨॥
गुरमुखि मनु समझाईऐ आतम रामु बीचारि ॥२॥
Gurmukẖ man samjā▫ī▫ai āṯam rām bīcẖār. ||2||
The Gurmukhs train their minds to contemplate the Lord, the Supreme Soul. ||2||
ਤ੍ਰਿਬਿਧਿ ਕਰਮ ਕਮਾਈਅਹਿ ਆਸ ਅੰਦੇਸਾ ਹੋਇ
त्रिबिधि करम कमाईअहि आस अंदेसा होइ ॥
Ŧaribaḏẖ karam kamā▫ī▫ahi ās anḏesā ho▫e.
By actions committed under the influence of the three qualities, hope and anxiety are produced.
ਕਿਉ ਗੁਰ ਬਿਨੁ ਤ੍ਰਿਕੁਟੀ ਛੁਟਸੀ ਸਹਜਿ ਮਿਲਿਐ ਸੁਖੁ ਹੋਇ
किउ गुर बिनु त्रिकुटी छुटसी सहजि मिलिऐ सुखु होइ ॥
Ki▫o gur bin ṯarikutī cẖẖutsī sahj mili▫ai sukẖ ho▫e.
Without the Guru, how can anyone be released from these three qualities? Through intuitive wisdom, we meet with Him and find peace.
ਨਿਜ ਘਰਿ ਮਹਲੁ ਪਛਾਣੀਐ ਨਦਰਿ ਕਰੇ ਮਲੁ ਧੋਇ ॥੩॥
निज घरि महलु पछाणीऐ नदरि करे मलु धोइ ॥३॥
Nij gẖar mahal pacẖẖāṇī▫ai naḏar kare mal ḏẖo▫e. ||3||
Within the home of the self, the Mansion of His Presence is realized when He bestows His Glance of Grace and washes away our pollution. ||3||
ਬਿਨੁ ਗੁਰ ਮੈਲੁ ਉਤਰੈ ਬਿਨੁ ਹਰਿ ਕਿਉ ਘਰ ਵਾਸੁ
बिनु गुर मैलु न उतरै बिनु हरि किउ घर वासु ॥
Bin gur mail na uṯrai bin har ki▫o gẖar vās.
Without the Guru, this pollution is not removed. Without the Lord, how can there be any homecoming?
ਏਕੋ ਸਬਦੁ ਵੀਚਾਰੀਐ ਅਵਰ ਤਿਆਗੈ ਆਸ
एको सबदु वीचारीऐ अवर तिआगै आस ॥
Ėko sabaḏ vīcẖārī▫ai avar ṯi▫āgai ās.
Contemplate the One Word of the Shabad, and abandon other hopes.
ਨਾਨਕ ਦੇਖਿ ਦਿਖਾਈਐ ਹਉ ਸਦ ਬਲਿਹਾਰੈ ਜਾਸੁ ॥੪॥੧੨॥
नानक देखि दिखाईऐ हउ सद बलिहारै जासु ॥४॥१२॥
Nānak ḏekẖ ḏikẖā▫ī▫ai ha▫o saḏ balihārai jās. ||4||12||
O Nanak, I am forever a sacrifice to the one who beholds, and inspires others to behold Him. ||4||12||
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ
सिरीरागु महला १ ॥
Sirīrāg mėhlā 1.
Siree Raag, First Mehl:
ਧ੍ਰਿਗੁ ਜੀਵਣੁ ਦੋਹਾਗਣੀ ਮੁਠੀ ਦੂਜੈ ਭਾਇ
ध्रिगु जीवणु दोहागणी मुठी दूजै भाइ ॥
Ḏẖarig jīvaṇ ḏuhāgaṇī muṯẖī ḏūjai bẖā▫e.
The life of the discarded bride is cursed. She is deceived by the love of duality.
ਕਲਰ ਕੇਰੀ ਕੰਧ ਜਿਉ ਅਹਿਨਿਸਿ ਕਿਰਿ ਢਹਿ ਪਾਇ
कलर केरी कंध जिउ अहिनिसि किरि ढहि पाइ ॥
Kalar kerī kanḏẖ ji▫o ahinis kir dẖėh pā▫e.
Like a wall of sand, day and night, she crumbles, and eventually, she breaks down altogether.
ਬਿਨੁ ਸਬਦੈ ਸੁਖੁ ਨਾ ਥੀਐ ਪਿਰ ਬਿਨੁ ਦੂਖੁ ਜਾਇ ॥੧॥
बिनु सबदै सुखु ना थीऐ पिर बिनु दूखु न जाइ ॥१॥
Bin sabḏai sukẖ nā thī▫ai pir bin ḏūkẖ na jā▫e. ||1||
Without the Word of the Shabad, peace does not come. Without her Husband Lord, her suffering does not end. ||1||
ਮੁੰਧੇ ਪਿਰ ਬਿਨੁ ਕਿਆ ਸੀਗਾਰੁ
मुंधे पिर बिनु किआ सीगारु ॥
Munḏẖe pir bin ki▫ā sīgār.
O soul-bride, without your Husband Lord, what good are your decorations?



         
यह साईट केवल सनातन पुरातन धर्म के जिज्ञासुओं के लिए है 
कृपया इस के शब्दों के साथ छेड़ छाड़ कि अनुमति नही है |
जपुजी साहिब  
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