शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

पर्दा ओरत की इजत और ओरत परिवार की


रामायण  में तुलसी दास जी ने नारी को पर्दे का अधिकारी कहा  है जब की रामायण कालमे सीता माता को पर्दा करते नही दिखाया गया फिर भी सर को ढकने की प्रथा बहुत पुरानी है |पाठ पूजा या अनुष्ठानो में सर को ढका जाता हे |यह नियम स्त्री-पुरुष दोनों पर ही लागू होता था |सर का भाव इजत से भी कहा जाता हे |इजत जब तक घूंगट  यानि पर्दे में रहे थी तक इजत होती हे बेपर्दा होते ही बदनामी सर पर लगा करती है |इसी कारण से सनातनी हिन्दू भी घुंगट को अपनाने लगे परन्तु उन्हों ने इसे केवल महीलाओं पर ही घुंगट के रूप में लागू किया | घूंगट और बुर्का   दोनों सनातन धर्मों हिंदू और मुसल्मानो की पहिचान बन गये |
 मुस्लिम पर्दा 
 इसाई 
 सिख पंजाबी महिलाएं 
पर्दा ओरत की इजत और ओरत परिवार की

बुधवार, 22 सितंबर 2010

प्रथमे गणेश मनाऊ , फिर कोई दूजा काम

अथर्वशीर्ष की परम्परा में ‘गणपति अथर्वशीर्ष’ का विशेष महत्त्व है। प्रायः प्रत्येक मांगलिक कार्यों में गणपति-पूजन के अनन्तर प्रार्थना रुप में इसके पाठ की परम्परा है। यह भगवान् गणपति का वैदिक-स्तवन है। इसका पाठ करने वाला किसी प्रकार के विघ्न से बाधित न होता हुआ महापातकों से मुक्त हो जाता है। इसी क्रम में इस ‘गणपति-सूक्त’ इस ब्लॉग का शुभारम्भ किया जा रहा है। ईश्वर मंगल करे।
॥ श्री गणपत्यथर्वशीर्ष ॥
॥ शान्ति पाठ ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ तन्मामवतु तद् वक्तारमवतु अवतु माम् अवतु वक्तारम्
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥।
॥ उपनिषत् ॥
॥हरिः ॐ नमस्ते गणपतये ॥
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्ताऽसि। त्वमेव केवलं धर्ताऽसि। त्वमेव केवलं हर्ताऽसि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ॥ १॥
गणपति को नमस्कार है, तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्त्व हो, तुम्हीं केवल कर्त्ता, तुम्हीं केवल धारणकर्ता और तुम्हीं केवल संहारकर्ता हो, तुम्हीं केवल समस्त विश्वरुप ब्रह्म हो और तुम्हीं साक्षात् नित्य आत्मा हो।
॥ स्वरूप तत्त्व ॥
ऋतं वच्मि (वदिष्यामि)॥ सत्यं वच्मि (वदिष्यामि)॥ २॥
यथार्थ कहता हूँ। सत्य कहता हूँ।
अव त्वं माम् । अव वक्तारम् । अव श्रोतारम् । अव दातारम् । अव धातारम् । अवानूचानमव शिष्यम् । अव पश्चात्तात् । अव पुरस्तात् । अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणात्तात् । अव चोर्ध्वात्तात्। अवाधरात्तात्। सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ॥३॥
तुम मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। षडंग वेदविद् आचार्य की रक्षा करो। शिष्य रक्षा करो। पीछे से रक्षा करो। आगे से रक्षा करो। उत्तर (वाम भाग) की रक्षा करो। दक्षिण भाग की रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे की ओर से रक्षा करो। सर्वतोभाव से मेरी रक्षा करो। सब दिशाओं से मेरी रक्षा करो।
त्वं वाङ्ग्मयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः। त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥
तुम वाङ्मय हो, तुम चिन्मय हो। तुम आनन्दमय हो। तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानन्द अद्वितीय परमात्मा हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम ज्ञानमय हो, विज्ञानमय हो।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥ ५॥
यह सारा जगत् तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत् तुमसे सुरक्षित रहता है। यह सारा जगत् तुममें लीन होता है। यह अखिल विश्व तुममें ही प्रतीत होता है। तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि और आकाश हो। तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चतुर्विध वाक् हो।
त्वं गुणत्रयातीतः त्वमवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारः स्थिथोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यम्। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम् ॥ ६॥
तुम सत्त्व-रज-तम-इन तीनों गुणों से परे हो। तुम भूत-भविष्य-वर्तमान-इन तीनों कालों से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीनों देहों से परे हो। तुम नित्य मूलाधार चक्र में स्थित हो। तुम प्रभु-शक्ति, उत्साह-शक्ति और मन्त्र-शक्ति- इन तीनों शक्तियों से संयुक्त हो। योगिजन नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो। तुम विष्णु हो। तुम रुद्र हो। तुम इन्द्र हो। तुम अग्नि हो। तुम वायु हो। तुम सूर्य हो। तुम चन्द्रमा हो। तुम (सगूण) ब्रह्म हो, तुम (निर्गुण) त्रिपाद भूः भुवः स्वः एवं प्रणव हो।
॥ गणेश मंत्र ॥
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरम्।अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम्। संहितासंधिः। सैषा गणेशविद्या। गणकऋषिः। निचृद्गायत्रीच्छंदः। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ॥ ७॥
‘गण’ शब्द के आदि अक्षर गकार का पहले उच्चारण करके अनन्तर आदिवर्ण अकार का उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार रहे। इस प्रकार अर्धचन्द्र से पहले शोभित जो ‘गं’ है, वह ओंकार के द्वारा रुद्ध हो, अर्थात् उसके पहले और पीछे भी ओंकार हो। यही तुम्हारे मन्त्र का स्वरुप (ॐ गं ॐ) है। ‘गकार’ पूर्वरुप है, ‘अकार’ मध्यमरुप है, ‘अनुस्वार’ अन्त्य रुप है। ‘बिन्दु’ उत्तररुप है। ‘नाद’ संधान है। संहिता’ संधि है। ऐसी यह गणेशविद्या है। इस विद्या के गणक ऋषि हैं। निचृद् गायत्री छन्द है और गणपति देवता है। मन्त्र है- ‘ॐ गं गणपतये नमः”
॥ गणेश गायत्री ॥
एकदंताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दंतिः प्रचोदयात् ॥ ८॥
एकदन्त को हम जानते हैं, वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। दन्ती हमको उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करें।
॥ गणेश रूप (ध्यानम्)॥
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम् ॥
रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ॥
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ॥
रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ॥
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् ॥
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥ ९॥
गणपतिदेव एकदन्त और चर्तुबाहु हैं। वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, दन्त और वरमुद्रा धारण करते हैं। उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा रक्तवस्त्रधारी हैं। रक्तचन्दन के द्वारा उनके अंग अनुलिप्त हैं। वे रक्तवर्ण के पुष्पों द्वारा सुपूजित हैं। भक्तों की कामना पूर्ण करने वाले, ज्योतिर्मय, जगत् के कारण, अच्युत तथा प्रकृति और पुरुष से परे विद्यमान वे पुरुषोत्तम सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए। इनका जो इस प्रकार नित्य ध्यान करता है, वह योगी योगियों में श्रेष्ठ है।
॥ अष्ट नाम गणपति ॥
नमो व्रातपतये । नमो गणपतये । नमः प्रमथपतये । नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय । विघ्ननाशिने शिवसुताय । श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ॥ १०॥
व्रातपति, गणपति, प्रमथपति, लम्बोदर, एकदन्त, विघ्ननाशक, शिवतनय तथा वरदमूर्ति को नमस्कार है।
॥ फलश्रुति ॥
एतदथर्वशीर्षं योऽधीते ॥ स ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ स सर्वतः सुखमेधते ॥ स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते ॥ स पंचमहापापात्प्रमुच्यते ॥ सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ॥ प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ॥ सायंप्रातः प्रयुंजानो अपापो भवति ॥ सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति ॥ धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ॥ इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम् ॥ यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् ॥ ११॥
इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है। (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाले सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी १००० आवृत्ति करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा।
(विविध प्रयोग)
अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति ॥ चतुर्थ्यामनश्नन् जपति स विद्यावान् भवति ।
स यशोवान् भवति ॥ इत्यथर्वणवाक्यम् ॥ ब्रह्माद्याचरणं विद्यात् न बिभेति कदाचनेति ॥ १२॥
जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् हो जाता है। यह अथर्वण-वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता।
(यज्ञ प्रयोग)
यो दूर्वांकुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ॥ यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति ॥ स मेधावान् भवति ॥ यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति ॥ यः साज्यसमिद्भिर्यजति
स सर्वं लभते स सर्वं लभते ॥ १३॥
जो दुर्वांकुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान होता है। जो सहस्त्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है।
(अन्य प्रयोग)
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति ॥ सूर्यगृहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति ॥ महाविघ्नात्प्रमुच्यते ॥ महादोषात्प्रमुच्यते ॥ महापापात् प्रमुच्यते ॥ स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति ॥ य एवं वेद इत्युपनिषत् ॥ १४॥
जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज-सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है-वह सर्वविद् हो जाता है।
॥ शान्ति मंत्र ॥
ॐ सहनाववतु ॥ सहनौभुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥ तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥ स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः ।
व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥ स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः ॥।
॥ इति श्रीगणपत्यथर्वशीर्षं समाप्तम् ॥

सनातन धर्म मेरी नजर

सनातन धर्म --की स्थापना भगवान विष्णु जी ,अवतार रूप धारण कर करते हैं |अध्याय २ के अनुसार
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥
भावार्थ :  असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्‌ का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों को  ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥16॥ 
जो देखने में आया , आप भी देखें और विचारें 
                                  ईख 
                         ई से ईख   से ईश्वर 
ईख [गन्ना ]से उत्पति      क्यों की जिस तरहा ब्रह्मांडमांड की उत्पति ईश्वर से होती है    उसी प्रकार ईख की उत्पति देखें 
 ईख से गुड --; हिन्दू सनातन धर्म       एक ईश्वर के अतिरक्त और कुछ भी नही

 ईख से शकर --; मुस्लिम सनातन धर्म     ईश्वर रूपी खुदा के अतिरिक्त और कुछ भी नही

ईख से चीनी --; सिख सनातन धर्म   ईश्वर रूपी हरी अकाल पुरख

 ईख से बताशा --; इसाई सनातन धर्म   ईश्वर रूपी परमेश्वर 


जिस तरहा ईख से गुड शकर चीनी और बताशा उत्पन होते हैं उसी प्रकार ईश्वर से चार वेद ,चार दिशाएं , चार वर्ण , और चार सनातन धर्म , हिन्दू ; मुस्लिम ;सिख ; इसाई उत्पन होते जाने |गुड .चीनी .शकर. बताशा .; की उम्र लम्बी होती है ;इन को काफी समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है ;परन्तु इन से उत्पन अन्य उत्पादों [ मिठाई और देह धारी गुरुओं; ]को लम्बे समय तक सुरक्षित नही रखा जा सकता |
गन्ना  अपने आप में ही ईश्वर की भाँती अविनाशी है इस का कोई बीज नही |यह खुद ही अपना बीज होता है |
ईश्वर की भाँती उपर से कठोर     भीतर से मुलायम     और मीठा होता है  |
मेरी नजर में सनातन धर्म ऐसा होता है  जो  एक  ईश्वर के अतिरिक्त और किसी भी साधन को स्वीकार ना करता हो , गने के पते [ धागे ,ताबीज ,यंत्र -मन्त्र ,; तन्त्र और भी ढेरों ] जड़ वगेरा वगेरा |

सोमवार, 20 सितंबर 2010

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

श्रेणी: पुस्तक

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शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

हिन्दू गुरु








 







श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌ ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥
भावार्थ :  श्री भगवान बोले- ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं॥1॥ 
 
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥
भावार्थ :  इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते॥2॥अद्याये ४ के २ श्लोक 
इन दोनों श्लोकों को यदि नजर अंदाज कर दिया जाए तो हमें तलाश होती हें किसी आध्यात्मिक गुरु की जो हमे ज्ञान की प्राप्ति करवा कर हमारा इस भवसागर से उधार करे   और हम जा फंसते हेँ किसी ढोंगी पाखंडी अज्ञानी मुर्ख देह धारी गुरु के चंगुल में और तमो गुण की ओर बड़ते ही जाते हैं |
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्‌ ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥
भावार्थ :  हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद (इंद्रियों और अंतःकरण की व्यर्थ चेष्टाओं का नाम 'प्रमाद' है), आलस्य (कर्तव्य कर्म में अप्रवृत्तिरूप निरुद्यमता का नाम 'आलस्य' है) और निद्रा द्वारा बाँधता है॥8॥ 
यदि हम इसी पर ध्यान दें तो श्री कृष्ण भी किसी आध्यात्मिक गुरु से कम नजर नही आते 
जिन का किसी भी काल में अंत नही होता | इस  लोक से परलोक तक सर्व व्यापक गुरु प्राप्त हो जाता हें | क्यों की भगवान खुद ही कह रहे हैं की
  ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं  |
यह तभी समझ में आता हें जब हमें भगवान के वचनों पर विश्वाश हो ओर तब  हमे  भगवान से बड़ा ज्ञानी इस धरती पर कोई ओर या उनके बराबर नजर ही नही  आये गा जो गारंटी ओर विश्वाश से कहता हो की मेरे इस ज्ञान का सहारा पाकर वह सभी मुनि जन इस संसार से मुक्त हो कर परम सीधी को प्राप्त हो चुके हेँ |
अतः इस के लिए अद्याये १८ 
 
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥
भावार्थ :  सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में जिसकी विधि कही है) तथा समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो॥57॥   देखो
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्‍कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥
भावार्थ :  उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा॥58॥ 
 

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‍गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥
भावार्थ :  इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर॥63॥

बुधवार, 1 सितंबर 2010

सिख धर्म