बुधवार, 16 जून 2010

जीवन का महाभारत हमें लड़ऩा भी है और जीतना भी है

yuddha_310एक महाभारत वो था जो कुरुक्षेत्र की भूमि पर लड़ा गया था। जिसमें एक और अन्याय और अधर्म थे तो दूसरी तरफ न्याय और धर्म। जिधर धर्म था, उधर भगवान थे और जिस ओर स्वयं भगवान हों वहां जीत तो सुनिश्चित ही थी। ऐसा ही एक महाभारत दुनिया के हरेक इंसान को लडऩा होता है। जबसे इंसान को यह शरीर मिला है, जबसे वह पैदा हुआ है, तभी से संघर्ष .... संघर्ष.... संघर्ष ।

ऐसा ही हम सभी के जीवन का कुरुक्षेत्र भी है। जैसे ही बच्चा पैदा होता है पहले रोता है। तो रोने से शुरू होती है उसके संघर्षों की कहानी। आज ये करूंगा, कल वो करूंगा। मतलब कर्म के बगैर आदमी रह नहीं सकता। जब तक शरीर है एक क्षण भी हम बिना कर्म के रह नहीं सकते। मन भी कहता रहता है ये करूंगा वो करूंगा। तो जब तक जीवन है तब तक कर्म करना ही होता है,लेकिन मूल बात है कुशलता पूर्वक कर्म करना। बिना कर्म के तो रहना मुश्किल है और कर्म से छूटना मुश्किल है। लेकिन कर्म के बंधन से छूटना मुश्किल नहीं है, यह युक्ति गीता के तीसरे अध्याय 'कर्मयोग' में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं।

महाभारत के विश्वविख्यात युद्ध के लिये स्वयं श्री कृष्ण द्वारा जगह का चयन किया गया। कुरुक्षेत्र के विशाल मेदान में दोनों ओर सेनाएं हैं, रथ हैं, रथ में अर्जुन बैठे हैं और कृष्ण सारथी के रूप में रथ के अश्वों की बागडोर अपने हाथ में लिए चला रहे हैं। थोड़ा समझें, यह केवल ऐतिहासिक घटना मात्र नहीं है, इसमें एक दर्शन है। जीवन स्वयं में कुरुक्षेत्र है। हमारे जीवन में कभी-कभी ऐसे पल आते हैं जब हम किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़े हो जाते हैं, अर्जुन की तरह। क्या करना चाहिए, क्या नहीं, हमारी समझ में नहीं आता। अपना कर्तव्य क्या है? अपना धर्म क्या है? गीता के द्वारा भगवान हमें याद दिलाते हैं कि-हमारा कर्तव्य क्या है? लक्ष्य क्या है? और इस लक्ष्य को सफलतापूर्वक हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं।

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