रविवार, 25 जुलाई 2010

bhart के गुरु और un गुरुओं ki पूजा

                                              गुरु पूजा

गुरु की महिमा कभी कुमाता न होने वाली माता, बालक की प्रथम गुरु है। गणेश जी ने अपने माता-पिता को जब गोविंद से महत्तर महत्व दिया,उनकी परिक्रमा की, सर्वप्रथम आए तब से प्रत्येक कार्य के श्रीगणेश के लिए हम सिद्धि विनायक का ही सर्वप्रथम पूजन करते हैं। यह माता-पिता के गुरुत्व की सर्व स्वीकृति है। हम गुरु के इसलिए आभारी हैं क्योंकि वह निर्माता हैं।हमारा निर्माता स्वयम भगवान हे | युगों युगान्तरों  से गुरुजन लोकमंगल के लिए योग्य शिष्यों की तलाश करते रहे हैं। राम लक्ष्मण को दशरथ से मांगने वाले कौशिक की तरह, चाणक्य ने प्रजाप्रिय शासन परिवर्तन के लिए चंद्रगुप्त की खोज की और उनकी कुशलता को निपुणता प्रदान की। चंद्रगुप्त को सम्राट बनाकर वह साधारण कुटिया में रहे।परन्तु आज के गुरुओं को खुद शिष्य खोजते हें और यह गुरु लोग कुटिया में ना रह कर भव्य भवनों में रहते हें | रामकृष्ण ने नरेंद्र में संभावनाएं पहचानीं और उन्होंने उनको अपना शिष्य बना लिया। आज संसार में स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित आश्रम निराशा-हताशा में सेवा के प्रकाशघर हैं। क्रोध के विपरीत गुरु क्षमा का गहरा सागर होता है। मैथिलीशरण गुप्त ने प्राचीन आश्रमों और गुरु की प्रशंसा भारत भारती में की। आमोद धौम्य: आरुणि, संदीपन गुरु आश्रम, याज्ञवल्कय आश्रम, अगस्त ऋषि आश्रम आदि में ज्ञान, विज्ञान, कृषि, गोपालन और अध्यात्म, शिक्षण-विषय थे। बाद में नवद्वीप, तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय स्थापित हुए जिनमें सुदूर देशों के विद्यार्थी यात्रा करके आते थे। हमारे यहां के गुरु विश्व पूज्य थे।जो कलयुग में बदनाम हो रहे हें | जहां लोग विदेश पढ़ने जाते थे वहीं डॉ. राधाकृष्णन पढ़ने नहीं पढ़ाने गए। आज भी परशुराम-कर्ण, द्रोणाचार्य-एकलव्य, रामानंद-कबीर जैसे गुरु-शिष्य बहुत हैं। गणेशप्रसाद वर्णी ने काशी में विद्यालय स्थापित करके अपनी पढ़ाई शुरू की और फिर गुरुओं की नियुक्ति उन्होंने की, उनके आदेश माने। डॉ. राधाकृष्णन जब मैसूर से कोलकाता गए तो उनके शिष्यों ने रथ में जुतकर उनको आसीन किया और बिदाई दी। शिष्य की जागरूकता गुरु की आदरपात्रता का सम्मान करती है। लालबहादुर शास्त्री ने अपने गुरु निष्कामेश्वर मिश्र के निधन पर गजरौला से काशी की यात्रा नंगे पैर उसी कोच में की। रेल के किसी अधिकारी से कहकर वह कोच नि:शुल्क ले सकते थे, ऐसा उन्होंने नहीं किया और पूरा व्यय वहन किया। गुरु ऋण चुकाने में शास्त्री जी ने पूरी ईमानदारी और तत्परता बरती थी।

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